स्वमन्तव्यामन्तव्यप्रकाशः

29. जैसे ‘आर्य’ श्रेष्ठ और ‘दस्यु’ दुष्ट मनुष्यों को कहते हैं, वैसे ही मैं भी मानता हूँ। 30.  ‘आर्य्यवत्र्त’ देश इस भूमि का नाम इसलिए है कि इसमें आदिसृष्टि से  आर्य्य लोग निवास करते हैं। परन्तु इसकी अवधि उत्तर में हिमालय, दक्षिण में विन्ध्याचल, पश्चिम में अटक और पूर्व में ब्रह्म नदी है। इन चारों के बीच में जितना देश है, उसको ‘आर्य्यवत्र्त’ कहते और जो इनमें सदा रहते हैं उनको भी आर्य कहते हैं। 31. जो सांगोपांग वेदविद्याओं का अध्यापक, सत्याचार का ग्रहण और मिथ्याचार का त्याग करावे, वह…

29. जैसे ‘आर्य’ श्रेष्ठ और ‘दस्यु’ दुष्ट मनुष्यों को कहते हैं, वैसे ही मैं भी मानता हूँ।
30.  ‘आर्य्यवत्र्त’ देश इस भूमि का नाम इसलिए है कि इसमें आदिसृष्टि से  आर्य्य लोग निवास करते हैं। परन्तु इसकी अवधि उत्तर में हिमालय, दक्षिण में विन्ध्याचल, पश्चिम में अटक और पूर्व में ब्रह्म नदी है। इन चारों के बीच में जितना देश है, उसको ‘आर्य्यवत्र्त’ कहते और जो इनमें सदा रहते हैं उनको भी आर्य कहते हैं।
31. जो सांगोपांग वेदविद्याओं का अध्यापक, सत्याचार का ग्रहण और मिथ्याचार का त्याग करावे, वह ‘आचार्य’ कहाता है।
32. ‘शिष्य’ उसको कहते हैं कि जो सत्यशिक्षा और विद्या ग्रहण करने योग्य, धर्मात्मा, विद्याग्रहण की इच्छा और आचार्य का प्रिय करने वाला है।
33. ‘गुरु’ माता-पिता और जो सत्य को ग्रहण करावे और असत्य को छुड़ावे, वह भी ‘गुरु’ कहाता है।
34. ‘पुरोहित’ जो यजमान का हितकारी सत्योपदेष होवे।
35. ‘उपाध्याय’ जो वेदों का एकदेश वा अंगों को पढ़ाता हो।
36. ‘शिष्टाचार’ जो धर्माचरणपूर्वक ब्रह्मचर्य से विद्या ग्रहण कर, प्रत्यक्षादि प्रमाणों से सत्यासत्य का निर्णय करके सत्य का ग्रहण, असत्य का परित्याग करना है यही शिष्टाचार, और जो इसको करता है वह ‘शिष्ट’ कहलाता है।
37. प्रत्यक्षादि आठ ‘प्रमाणों’ को भी मानता हूँ।
38. ‘आप्त’ जो यथार्थवक्ता, धर्मात्मा, सबके सुख के लिए प्रयत्न करता है, उसी को ‘आप्त’ कहता हूँ।

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