आर्योद्देश्यरत्नमाला

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आर्योद्देश्यरत्नमाला 1. ईश्वर- जिसके गुण कर्म स्वभाव और स्वरूप सत्य ही है, जो केवल चेतन मात्रा वस्तु है, तथा जो एक अद्वितीय सर्वशक्तिमान् निराकार सर्वत्र व्यापक अविनाशी ज्ञानी आनन्दी शुद्ध न्यायकारी दयालु और अजन्मादि है, जिसका कर्म जगत् की उत्पत्ति पालन और विनाश करना, तथा सर्व जीवों को पाप-पुण्य के फल ठीक-ठीक पहुंचाना है, ‘ईश्वर’ कहते है। 2. धर्म- जिसका स्वरूप ईश्वर की आज्ञा का यथावत् पालन और पक्षपात रहित न्याय सर्वहित करना है, जो कि प्रत्यक्षादि प्रमाणों से सुपरीक्षित औरवेदोक्त होने से सब मनुष्यों के लिये यही एक मानने…

आर्योद्देश्यरत्नमाला

1. ईश्वर- जिसके गुण कर्म स्वभाव और स्वरूप सत्य ही है, जो केवल चेतन मात्रा वस्तु है, तथा जो एक अद्वितीय सर्वशक्तिमान् निराकार सर्वत्र व्यापक अविनाशी ज्ञानी आनन्दी शुद्ध न्यायकारी दयालु और अजन्मादि है, जिसका कर्म जगत् की उत्पत्ति पालन और विनाश करना, तथा सर्व जीवों को पाप-पुण्य के फल ठीक-ठीक पहुंचाना है, ‘ईश्वर’ कहते है।

2. धर्म- जिसका स्वरूप ईश्वर की आज्ञा का यथावत् पालन और पक्षपात रहित न्याय सर्वहित करना है, जो कि प्रत्यक्षादि प्रमाणों से सुपरीक्षित औरवेदोक्त होने से सब मनुष्यों के लिये यही एक मानने योग्य है, उसको ‘धर्म’ कहते है।

3. अधर्म- जिसका स्वरूप ईश्वर की आज्ञा को छोड़कर और पक्षपात सहित अन्यायी हो के बिना परीक्षा करके अपना ही हित करना है, जो अविद्या हठ अभिमान क्रूरतादि दोषयुक्त होने के कारण वेद-विद्या से विरुद्ध है, और सब मनुष्यों को छोड़ने के योग्य है।

4. पुण्य- जिसका स्वरूप विद्यादि शुभगुणों का दान और सत्यभाषणादि सत्याचार का करना है, उसको ‘पुण्य’ कहते है।

5. पाप– जो पुण्य से उलटा और मिथ्याभाषणादि करना है, उसको ‘पाप’ कहते हैं।

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