आयुर्वेद में वर्णित अजीर्ण का स्वरूप, कारण व भेद
विदग्धाजीर्ण का लक्षण- विदग्धे भ्रमतृण्मूर्छाः पित्ताच्च विविधा रुजः। उद्गरश्च सधूमाम्लः स्वेदो दाहश्च जायते।। (माधव., अजीर्ण.-10) विदग्धाजीर्ण पित्तजन्य होता हैं इसमें भ्रम, प्यास, मूर्छा तथा अनेक प्रकार के पित्तज विकार होते हैं। खट्टी डकारों के साथ मुँह से धुंआ-सा निकलता है। स्वेद और दाह विशेष रूप से होते हैं। विष्टब्धाजीर्ण का लक्षण- विष्टब्धे शूलमाध्मानं विविधा वातवेदनाः। मलतावाप्रवृत्तिश्च स्तम्भो मोहोऽड्गपीडनम्।। …
विदग्धाजीर्ण का लक्षण-
विदग्धे भ्रमतृण्मूर्छाः पित्ताच्च विविधा रुजः।
उद्गरश्च सधूमाम्लः स्वेदो दाहश्च जायते।।
(माधव., अजीर्ण.-10)
विदग्धाजीर्ण पित्तजन्य होता हैं इसमें भ्रम, प्यास, मूर्छा तथा अनेक प्रकार के पित्तज विकार होते हैं। खट्टी डकारों के साथ मुँह से धुंआ-सा निकलता है। स्वेद और दाह विशेष रूप से होते हैं। विष्टब्धाजीर्ण का लक्षण-
विष्टब्धे शूलमाध्मानं विविधा वातवेदनाः।
मलतावाप्रवृत्तिश्च स्तम्भो मोहोऽड्गपीडनम्।।
(माधव., अजीर्ण.-11)
यह वातजन्य होता है। इसमें शूल, आध्मान, तोद, भेद आदि विविध प्रकार की वातिक वेदनाएं होती हैं। इसमें मल और अधोवायु की अप्रवृत्ति, स्तब्धता, मूर्छा तथा अंगों में पीड़ा आदि लक्षण होते हैं। रसशेषाजीर्ण का लक्षण-
आमं विदग्धं विष्टब्धं कफपित्तानिलैस्त्रिभिः।
अजीर्णं केचिदिच्छन्ति चतुर्थं रसशेषतः।।
(सु.सं.सू.-46.499)
त्रिभिरित्येकैकशो न तु मिलितैः। रसशेषतो भुक्तस्य पक्वस्य सारभूतो द्रवः। स चापक्वो रसशेषः, तस्मात् चतुर्थमजीर्णं न त्वामाजीर्णम्। ननु आमाजीर्णाद् रसशेषस्य को भेदः? आमं मधुरतां गतम् अपक्वमन्नमेव। रसशेषस्तु भुक्तस्य पक्वस्य सारभूतो यो द्रवः, स च अपक्व इति भेदः। (आयुर्वेदाब्धिसारः, प्रथमभागः-986)
क्रमशः कफ, पित्त एवं वात से पृथक् पृथक् रूप से- आमाजीर्ण, विदग्धाजीर्ण एवं विष्टब्धाजीर्ण होते हैं। कुछेक विद्वान् रसशेष के कारण होने वाले रसशेषाजीर्ण नामक चतुर्थ भेद को भी मानते हैं। रसशेषाजीर्ण आमाजीर्ण से भिन्न है। आमाजीर्ण में अपक्व अन्न ही मधुरता युक्त होकर बिना पचे पड़ा रहता है, जबकि रसशेषाजीर्ण में पचे हुए अन्न का सारभूत रस अपक्व अवस्था में रहता है।
रसशेषेऽन्नविद्वेषो हृदयाशुद्धिगौरवे। (माधव., अजीर्ण.12)
रसशेषाजीर्ण होने पर हृदय में गुरुता, अशुद्धि और भोजन में अरुचि होती है।