आयुर्वेद में वर्णित अजीर्ण का स्वरूप, कारण व भेद

आयुर्वेद में वर्णित अजीर्ण  का स्वरूप, कारण व भेद

आरोग्यं दोषसमता सर्वाबाधनिवर्तनम्। तदर्थमृषयः पुण्यमायुर्वेदमधीयते।। दोषों का समावस्था में होना तथा सर्वविध रोगों की निवृत्ति ‘आरोग्य’ कहलाता है। इस आरोग्य के लिए ही ऋषि लोग पुण्य (पवित्र) आयुर्वेद का अध्ययन करते हैं। रसायनानि विधिवत्तदर्थं चोपयुत्रते। धर्मार्थकाममोक्षाणामवाप्तिश्च तदाश्रया।। तदात्मवांस्तदर्थाय प्रयतेत विचक्षणः। उस आरोग्य के लिए ही विधिवत् रसायनों का प्रयोग किया जाता है। धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष आदि चतुर्विध पुरुषार्थ की प्राप्ति भी आरोग्य से ही होती है। चरकसंहिता के अनुसार- आरोग्य दान के द्वारा वैद्य धर्म, अर्थ, काम तथा अभ्युदय एवं निःश्रेयस (मोक्ष) का दाता बन जाता है। निर्बल…

आरोग्यं दोषसमता सर्वाबाधनिवर्तनम्।
तदर्थमृषयः पुण्यमायुर्वेदमधीयते।।

दोषों का समावस्था में होना तथा सर्वविध रोगों की निवृत्ति ‘आरोग्य’ कहलाता है। इस आरोग्य के लिए ही ऋषि लोग पुण्य (पवित्र) आयुर्वेद का अध्ययन करते हैं।

रसायनानि विधिवत्तदर्थं चोपयुत्रते।
धर्मार्थकाममोक्षाणामवाप्तिश्च तदाश्रया।।
तदात्मवांस्तदर्थाय प्रयतेत विचक्षणः।

उस आरोग्य के लिए ही विधिवत् रसायनों का प्रयोग किया जाता है। धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष आदि चतुर्विध पुरुषार्थ की प्राप्ति भी आरोग्य से ही होती है। चरकसंहिता के अनुसार- आरोग्य दान के द्वारा वैद्य धर्म, अर्थ, काम तथा अभ्युदय एवं निःश्रेयस (मोक्ष) का दाता बन जाता है। निर्बल पुरुष जहाँ भौतिक अर्थ एवं काम की प्राप्ति में असमर्थ रहता है, वहाँ वह धर्म तथा मोक्ष से भी व´्चित रहता है। इसलिए बुद्धिमान् तथा आत्मवान् (जितेन्द्रिय मनुष्य) को आरोग्य की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करना चाहिए।

अन्नाभिलाषो भुक्तस्य परिपाकः सुखेन च।।
स्रष्टविण्मूत्रवातत्वं शरीरस्य च लाघवम्।
सुप्रसन्नेन्द्रियत्वं च सुखस्वप्नप्रबोधनम्।
बलवर्णायुषां लाभः सौमनस्यं समाग्निता।
विद्यादारोग्यलिड्गानि विपरीते विपर्ययम्।।

आरोग्य के लक्षण- अन्न में रुचि, खाए हुए अन्न का सुखपूर्वक परिपाक हो जाना, मल-मूत्र तथा वायु का निकलना, शरीर की लघुता, इन्द्रियों की प्रसन्नता, सुखपूर्वक सोना तथा जागना, बल, वर्ण तथा आयु की प्राप्ति, मन की प्रसन्नता तथा अग्नि की समता- ये आरोग्य के लक्षण हैं। अनारोग्य (अवस्थता) में इससे विपरीत लक्षण होते हैं।

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