स्वमन्तव्यामन्तव्यप्रकाशः

स्वमन्तव्यामन्तव्यप्रकाशः

19. जो सदा विचारकर असत्य को छोड़ सत्य का ग्रहण करें, अन्यायकारियों को हटावे और न्यायकारियों को बढ़ावे, अपने आत्मा के समान सबका सुख चाहे, सो ‘न्यायकारी’ है, उसको मैं भी ठीक मानता हूँ। 20. ‘देव’ विद्वानों को और अविद्वानों को ‘असुर’, पापियों को ‘राक्षस’, अनाचारियों को ‘पिशाच’ मानता हूँ। 21. उन्हीं विद्वानों, माता, पिता, आचार्य, अतिथि, न्यायकारी राजा और धर्मात्मा जन, पतिव्रता स्त्री और स्त्रीव्रत पति का सत्कार करना ‘देवपूजा’ कहाती है, इससे विपरीत ‘अदेवपूजा’ इनकी मूतियों को पूज्य और इतर पाषाणादि जड़मूर्तियों को सर्वथा अपूज्य समझता हूँ। 22.…

19. जो सदा विचारकर असत्य को छोड़ सत्य का ग्रहण करें, अन्यायकारियों को हटावे और न्यायकारियों को बढ़ावे, अपने आत्मा के समान सबका सुख चाहे, सो ‘न्यायकारी’ है, उसको मैं भी ठीक मानता हूँ।

20. ‘देव’ विद्वानों को और अविद्वानों को ‘असुर’, पापियों को ‘राक्षस’, अनाचारियों को ‘पिशाच’ मानता हूँ।

21. उन्हीं विद्वानों, माता, पिता, आचार्य, अतिथि, न्यायकारी राजा और धर्मात्मा जन, पतिव्रता स्त्री और स्त्रीव्रत पति का सत्कार करना ‘देवपूजा’ कहाती है, इससे विपरीत ‘अदेवपूजा’ इनकी मूतियों को पूज्य और इतर पाषाणादि जड़मूर्तियों को सर्वथा अपूज्य समझता हूँ।

22. ‘शिक्षा’ जिससे विद्या, सभ्यता, धर्मात्मता, जितेन्द्रियतादि की बढ़ती होवे और अविद्यिादि दोष छूटें, उसको शिक्षा कहते हैं।

23. ‘पुराण’ जो ब्रह्मादि के बनाए, ऐतरेयादि ब्राह्मण-पुस्तक हैं, उन्हीं को पुराण, इतिहास, कल्प, गाथा और नाराशंसी नाम से मानता हूँ, अन्य भागवतादि को नहीं।

24. ‘तीर्थ’ जिससे दुःखसागर से पार उतरे, यानि कि जो सत्यभाषण, विद्या, सत्संग, यमादि योगाभ्यास, पुरुषार्थ, विद्यादानादि शुभ कर्म हैं, उन्हीं को तीर्थ समझता हूँ, इतर जलस्थलादि को नहीं।

25. ‘पुरुषार्थ प्रारब्ध से बड़ा’ इसलिए है कि जिससे संचित प्रारब्ध बनते, जिसके सुधरने से सब सुधरते और जिसके बिगड़ने से सब बिगड़ते है, इसी से प्रारब्ध की अपेक्षा पुरुषार्थ बड़ा है।

26. ‘मनुष्य’ को सबसे यथायोग्य स्वात्मवत् सुख-दुःख हानि-लाभ में वत्र्तना श्रेष्ठ, अन्यथा वत्र्तना बुरा समझता हूँ।

27. ‘संस्कार’ उसको कहते हैं कि जिससे शरीर, मन और आत्मा उत्तम होवे। वह निषेकादि श्मशानान्त सोलह प्रकार का है। इसको कत्र्तव्य समझता हूँ। और दाह के पश्चात् मृतक के लिए कुछ भीन करना चाहिए।

28. ‘यज्ञ’ उसको कहते हैं कि जिसमें विद्वानों का सत्कार, यथायोग्य शिल्प अर्थात् रसायन जो कि पदार्थविद्या, उससे उपयोग और विद्यादि शुभगुणों का दान, अग्निहोत्रादि जिनसे वायु, वृष्टि, जल ओषधि की पवित्राता करके सब जीवों को सुख पहुँचाना है, उसको उत्तम समझता हूँ।

Related Posts

Advertisement

Latest News

योग महोत्सव: योग अपनाने से आएंगे अच्छे दिन : स्वामी जी योग महोत्सव: योग अपनाने से आएंगे अच्छे दिन : स्वामी जी
        ऋषिकेश (उत्तराखंड)। पर्यटन विभाग व गढ़वाल मंडल विकास निगम के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित अंतर्राराष्ट्रीय योग महोत्सव का आज
कुंभ मेला: आस्था, विश्वास और संस्कृतियों का संगम
एजुकेशन फॉर लीडरशिप का शंखनाद
स्थापना दिवस: 30 वर्ष पूर्ण होने पर पतंजलि का संकल्प योग क्रांति के बाद अब पंच क्रांतियों का शंखनाद: प.पू.स्वामी जी
उपलब्धियां: शिक्षा में सनातन, संस्कृतिक विरासत के साथ राजनीतिक व आर्थिक भाव जरूर हो: प.पूज्य स्वामी जी
सम्मान समारोह: भारतीय ज्ञान परंपरा की संवाहक हैं भारतीय  शिक्षा बोर्ड की हिंदी की पाठ्य पुस्तकें - प्रो. राम दरश मिश्र
जनाक्रोश रैलीः बांग्लादेशी हिन्दुओं पर हो रहे अत्याचार केविरोध में जनाक्रोश रैली में प.पू.स्वामी जी महाराज