आर्योद्देश्यरत्नामाला

आर्योद्देश्यरत्नामाला

आर्योद्देश्यरत्नामाला 11. अपरलोक- जो परलोक से उलटा है, जिसमें दुःख विशेष भोगना होता है, वह ‘अपरलोक’ कहाता है। 12. जन्म- जिसमें किसी शरीर के साथ संयुक्त होके जीव कर्म करने में समर्थ होता है, उसको ‘जन्म’ कहते हैं। 13. मरण- जिस शरीर को प्राप्त होकर जीव क्रिया करता है, उस शरीर और जीव का किसी काल में जो वियोग हो जाना है, उसको ‘मरण’ कहते हैं। 14. स्वर्ग- जो विशेष सुख और सुख की सामग्री को जीव का प्राप्त होना है, वह ‘स्वर्ग’ कहलाता है। 15. नरक- जो विशेष दुःख…

आर्योद्देश्यरत्नामाला

11. अपरलोक- जो परलोक से उलटा है, जिसमें दुःख विशेष भोगना होता है, वह ‘अपरलोक’ कहाता है।
12. जन्म- जिसमें किसी शरीर के साथ संयुक्त होके जीव कर्म करने में समर्थ होता है, उसको ‘जन्म’ कहते हैं।
13. मरण- जिस शरीर को प्राप्त होकर जीव क्रिया करता है, उस शरीर और जीव का किसी काल में जो वियोग हो जाना है, उसको ‘मरण’ कहते हैं।
14. स्वर्ग- जो विशेष सुख और सुख की सामग्री को जीव का प्राप्त होना है, वह ‘स्वर्ग’ कहलाता है।
15. नरक- जो विशेष दुःख और दुःख की सामग्री को जीव का प्राप्त होना है, उसको ‘नरक’ कहते हैं।
16. विद्या- जिससे ईश्वर से लेके पृथिवीपर्यन्त पदार्थों का सत्य विज्ञान होकर धन से यथायोग्य उपकार लेना का सत्य विज्ञान होकर धन से यथायोग्य उपकार लेना होता है, इसका नाम ‘विद्या’ है।
17. अविद्या- जो विद्या से विपरीत है, भ्रम अन्धकार और अज्ञानरूप है, उसको ‘अविद्या’ कहते हैं।
18. सत्पुरुष- जो सत्यप्रिय धर्मात्मा विद्वान् सब के हितकारी और महाशय होते हैं, वे ‘सत्पुरुष’ कहाते हैं।

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