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गीता की दृश्टि में यज्ञ का समग्र स्वरूप क्या है ?   श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार समस्त शुभ कर्मों का नाम है यज्ञ है। ‘यज्ञ’ शब्द के अन्तर्गत अग्निहोत्र, दान, तप, होम, तप, होम, तीर्थ सेवन, वेदाध्ययन आदि समस्त शारीरिक, व्यावहारिक और पारमार्थिक क्रियाएँ आ जाती हैं। कत्र्तव्य मानकर किये जाने वाले व्यापार नौकरी, अध्ययन, अध्यापन आदि सब शास्त्रविहित कर्मों का नाम भी यज्ञ है। दूसरों को सुख पहुँचाने तथा उनका हित करने के लिए जो भी कर्म किये जाते हैं। वे सभी यज्ञार्थ कर्म हैं। यज्ञार्थ कर्म करने से आशक्ति…

गीता की दृश्टि में यज्ञ का समग्र स्वरूप क्या है ?

 

श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार समस्त शुभ कर्मों का नाम है यज्ञ है। ‘यज्ञ’ शब्द के अन्तर्गत अग्निहोत्र, दान, तप, होम, तप, होम, तीर्थ सेवन, वेदाध्ययन आदि समस्त शारीरिक, व्यावहारिक और पारमार्थिक क्रियाएँ आ जाती हैं। कत्र्तव्य मानकर किये जाने वाले व्यापार नौकरी, अध्ययन, अध्यापन आदि सब शास्त्रविहित कर्मों का नाम भी यज्ञ है। दूसरों को सुख पहुँचाने तथा उनका हित करने के लिए जो भी कर्म किये जाते हैं। वे सभी यज्ञार्थ कर्म हैं। यज्ञार्थ कर्म करने से आशक्ति अतिशीघ्र मिट जाती है तथा कर्मयोगी के सम्पूर्ण कर्म नष्ट हो जाते हैं।

यज्ञ में निष्कामता-

जिस समय गीता लिखी गई उस समय अपने देश में कर्मकाण्ड का सर्वत्र प्रचार था। कर्मकाण्ड का प्रतिपादन करने वाली पुस्तकें ब्राह्मण ग्रन्थ हैं, इन ग्रन्थों में यज्ञ-यागादि का अतिसूक्ष्मता के साथ विवरण है। कर्मकाण्डी कहते थे कि इन विधि-विधानों के अनुसार यज्ञ किया जाय, तो स्वर्ग की प्राप्ति होती है, सन्तान तथा सम्पत्ति के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार के यज्ञ करते थे। यज्ञों का आधार सकामता थी, इच्छा की पूर्ति थी। श्रीकृष्ण ने कहा कि सृष्टि का सम्पूर्ण व्यवहार निष्कामता परचल रहा है। इसका सब से बड़ा प्रमाण यह है कि सकामता का नाम लेकर चले हुए ये यज्ञ भी बिना निष्कामता के सफल नहीं हो सकते। वह कैसे? कर्मकाण्डियों की यज्ञ-यागादि के सम्बन्ध में विचारधारा यह है कि सृष्टि का संचालन देवता लोग कर रहे हैं। अग्नि, वायु, आदित्य, वरुण आदि सब देवता हैं। यज्ञ द्वारा कर्मकाण्डी इन देवताओं को हवि पहुँचाते हैं। देवताओं को जब हवि पहुँचती है, तब देवता भी मनुष्यों को सुख, स्वर्ग, सन्तान, सम्पत्ति का दान करते हैं। देवताओं को हवि देते हुए यजमान कहता है- ‘इदम् अग्नये इदन्न मम’- यह अग्नि के लिए हे, यह मेरे लिए नहीं है। इसी प्रकार ‘इदन्न मम’ को प्रत्येक देवता को हवि देते हुए दोहराया जाता है। श्रीकृष्ण जी का कहना है कि देवताओं के लिए ‘इदन्न मम’ की भावना ही तो ‘निष्काम-कर्म’ है। कामना को, ममता-अहंकार को त्याग देना ही तो ‘निष्काम-कर्म’ है और यज्ञ कभी सफल नहीं हो सकता यदि उसमें यह ‘इदं न मम’ की भावना न हो, यदि अपने कर्म को देवता को अर्पण न किया जाय। इस प्रकार श्रीकृष्ण ने अपने समय में प्रचलित ‘यज्ञ’- शब्द को एक नया अर्थ दे दिया, नया अर्थ ही नहीं दे दिया, ‘निष्काम-कर्म’ को ‘यज्ञ’ ही कह दिया।

निष्काम-कर्म तथा यज्ञ-

जो लोग विचारों में क्रांति लाया करते हैं वे पुराने शब्दों मंे नया अर्थ डाल देते हैं। यद्यपि सर्वसाधारण जन, क्योंकि पुरातन को छोड़ते नहीं, रुढ़ि उन्हें जकड़े रहती है, इसलिए संसार को नवीन संदेश देने वाला उन पुराने ही शब्दों में नवीन भावना भर देता है। जैसे कि वर्तमान युग में श्रद्धेय स्वामी जी महाराज ने ‘योग’ और ‘संन्यास’ शब्द का अर्थ अत्यन्त व्यापक व सर्व सुलभ बना दिया। श्रीकृष्ण ने ऐसा ही किया। ‘यज्ञ’-शब्द का प्रयोग सकाम-भावना के लिए किया जाता था, उन्होंने इसी शब्द को लेकर इसका निष्काम-भावना के लिए प्रयोग किया। ‘निष्काम-भावना’ का अर्थ है स्वार्थ का त्याग, कामना का त्याग, इच्छा का त्याग, दूसरों के लिए जीना-मरना, ‘यज्ञ’ का भी श्रीकृष्ण ने यही अर्थ किया। गीता में कहा कि यज्ञ की, त्याग की, निःस्वार्थ की, निष्कामता की भावना तो सृष्टि के बीज में पड़ी है। प्रजापति ने सृष्टि की रचना करते हुए यज्ञ के साथ ही तो इसे रचा, ‘सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः’ यज्ञ की भावना, अर्थात् त्याग का पुट देकर कह दिया कि सृष्टि का चक्र इसी भावना के साथ चलाओ। इतना ही नहीं, जैसे यज्ञ में जो यज्ञ-शेष रह जाता है वही लेकर यजमान अपने को धन्य समझता है, इसी तरह सब कर्मों को भगवान् के चरणों में सौंप कर जो-कुछ कर्म-फल मिले उसे यज्ञ-शेष समझकर स्वीकार करें, जो अपने कर्मों को भगवान् के चरणों में नहीं सौंपता, कर्मों की हवि भगवान् के रचे यज्ञ में न डालकर स्वयं फल भोगने की इच्छा रखने वाला चोर हैं। मनुष्य अपने प्रत्येक कर्म को एक यज्ञ समझे और जैसे यज्ञ-शेष ही खाया जाता है, वैसे ही भगवान् जो भी फल दे उसे यज्ञ-शेष समझकर स्वीकार करें। अतः इन सकाम यज्ञों में बस यहीं निष्कामता दिखाकर श्रीकृष्ण ने ‘निष्काम-कर्म’ को ‘यज्ञ’ कहा और इस प्रकार उस समय की प्रचलित विचारधारा तथा अपनी विचाराधारा में मेल बैठा दिया।

सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः।
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक््।।3-10।।
सृष्टि रचना के प्रारम्भ में यज्ञ (परमार्थ पारस्परिक सहयोग) की भावना के सहित प्रजाओं की उत्पत्ति का प्रजापति (ब्रह्मा) ने अपनी प्रजाओं से कहा- इस यज्ञ द्वारा तुम्हारी वृद्धि हो, यह यज्ञ ही तुम्हारी शुभ कामनाओं की पूर्ति करने वाला हो।

देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः।
परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ।।3-11।।
तुम लोग इस यज्ञ के द्वारा देवताओं को उन्नत करो और वे देवता तुम लोगों को उन्नत करें। इस प्रकार निःस्वार्थ भाव से एक दूसरे को उन्नत करते हुए परम कल्याण को प्राप्त हो जाओगे।

इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः।
तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुड्क्ते स्तेन एव सः।।3-12।।
क्योंकि जीवन की विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाले विभिन्न देवता यज्ञ सम्पन्न होने पर प्रसन्न होकर तुम्हारी सारी आवश्यकताओं की पूर्ति करेंगे। किन्तु जो इन उपहारों को देवताओं को अर्पित किये बिना भोगता है वह निश्चित रूप से चोर है।

यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्विषैः।
भु´्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात्।।13-13।।
यज्ञ सम्पन्न करने के बाद ग्रहण किये जाने वाले भोजन को खाने वाले भक्तगण सब पापों के द्वारा छोड़ दिए जाते हैं। अर्थात् भगवान् के भक्त सभी प्रकार के पापों से मुक्त हो जाते हैं अन्य जो अपने इन्द्रियसुख के लिए भोजन बनाते हैं वे निश्चित रूप से पाप खाते हैं। अर्थात् सांसारिक जीवन में माता-पिता गुरुजन, पति-पत्नी, बच्चे, भाई-बहन, रिश्तेदार, समाज, राष्ट्र इत्यादि के प्रति जो-जो जिसका अधिकार है वह सब उनको देना और अन्त में इन उपरोक्त देवों को इनका स्व-स्व भाग आहुत करके शेष बचे हुए को समग्र रूप से ईश्वर के चरणों में समर्पित कर देना यही पूर्णाहुति है- ‘सर्वं वै पूर्णं स्वाहा।’ एक वाक्य में कहें तो दूसरों के अधिकार व अपने कत्र्तव्यों का ध्यान रखते हुए जीवन जीना ही यज्ञमय जीवन है।

-पूज्या साध्वी देवप्रिया
(महिला मुख्य केन्द्रीय प्रभारी)

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