आयुर्वेद अमृत : आयुर्वेद में वर्णित अजीर्ण का स्वरूप, कारण व भेद
On
अजीर्ण का स्वरूप-
अविपक्वोऽग्निमान्द्येन यो रसः स निगद्यते।
रोगाणां प्रथमो हेतुः सर्वेषामामसंज्ञया।।
-(योगरत्नाकर, अजीर्णनिदाराम्-1)
जठराग्नि की मन्दता के कारण अपक्व (बिना पचा) आहार रस ‘आम’ कहलाता है, जो आमाशय-स्थित होता है। यह ‘आम’ ही सब रोगों को प्रथम कारण होता है।
अजीर्ण के मुख्य कारण-
अत्यम्बुपानाद्विषमाशनाच्च सन्धारणात्स्वप्नविपर्ययाच्च।
कालेऽपि सात्म्यं लघु चापि भुक्तमन्नं न पाकं भजते नरस्य।।
-(सु.सं.सू.-46.500)
बहुत अधिक जल पीना, विषय आहार लेना अर्थात् कभी कम कभी अधिक, कभी समय पर कभी असमय तथा कभी संयोगविरुद्ध व अहितकर आहार करना, मल-मूत्र आदि वेगों को धारण करना, समुचित निद्रा न लेना, इन कारणों से समय पर किया हुआ अनुकूल और लघु भोजन भी समुचित रूप से नहीं पचता है अर्थात् अजीर्ण हो जाता है।
ईष्र्याभयक्रोधपरिप्लुतेन लुब्धेन शुग्दैन्यनिपीडितेन।
प्रद्वेषयुक्तेन च सेव्यमानमन्नं न पाकं भजते नरस्य।।
-(सु.सं.सू.-46.501)
ईष्र्या (परसम्पत्ति की असहिष्णुता) भय, क्रोध से व्याप्त एवं लोभ, शोक, दैत्य (दीनता) तथा प्रद्वेष (मत्सरता) से आक्रान्त व्यक्ति के द्वारा सेवित किया जाता हुआ अन्न सम्यक् प्रकार से नहीं पचता है। व्यायाम व निद्रा का अभाव भी अजीर्ण का बड़ा कारण है। जैसा कि वैद्यराज सुषेण ने कहा है-
स्थाल्यां यथाऽनावरणाननायां न घट्टितायां न च साधुपाकः।
अनाप्तनिद्रस्य तथा नरेन्द्र! व्यायामहीनस्य न चान्नपाकः।।
-(सु.नि., व्यायामोद्वत्र्तनाभ्यंगगुणवर्गः-7)
जैसे ढक्कनरहित स्थाली (देगची/बटलोई) में डाला गया अन्न करछी से बिना चलाये ठीक प्रकार से नहीं पकता है। हे राजन्! उसी प्रकार नींद न लेने वाले तथा व्यायाम न करने वाले व्यक्ति का खाया हुआ अन्न भी नहीं पचता है।
अजीर्ण के भेद-
अजीर्णाप्रभवा रोगास्तदजीर्णं चतुर्विधम्।
आमं विदग्धं विष्टब्धं रसशेषं चतुर्थकम्।।
प्रायः सभी रोग अजीर्णप्रभव (अजीर्ण से उत्पन्न होने वाले) होते हैं। अजीर्ण चार प्रकार का माना जाता है- आमाजीर्ण, विदग्धाजीर्ण, विष्टब्धाजीर्ण व रसशेषाजीर्ण।
Related Posts
Latest News
एजुकेशन फार लीडरशिप का शंखनाद
08 Dec 2024 15:59:36
राष्ट्रभक्त बुद्धिजीवियों को विश्व नेतृत्व के लिए तैयार करने की योजना -
पतंजलि विश्वविद्यालय के विश्वस्तरीय वृहद सभागार में आयोजित...