एक भक्त की प्रार्थना - ‘‘आनो भद्रा क्रतवो यन्तु विश्वतः परि भूरसि।।’’

एक भक्त की प्रार्थना - ‘‘आनो भद्रा क्रतवो यन्तु विश्वतः परि भूरसि।।’’

डाॅ. आचार्या साध्वी देवप्रिया जी, संकायाध्यक्षा (DEAN) एवं कुलानुशासिका पतंजलि विश्वविद्यालय, हरिद्वार

डाॅ. आचार्या साध्वी देवप्रिया जी,

संकायाध्यक्षा (DEAN) एवं कुलानुशासिका

पतंजलि विश्वविद्यालय, हरिद्वार

 

     इस मंत्र का अर्थ यह है कि साधक के द्वारा प्रार्थना की जा रही है कि हे प्रभो! बहुत अधिक मात्रा में भद्र-शुभ- अच्छाईयाँ मेरी तरफ आयें। कितनी सुन्दर प्रार्थना है यह और यह प्रार्थना अवश्य ही पूरी होने के योग्य है तभी तो की जा रही है। अब प्रश्न यह उठता है कि क्या यह सम्भव है कि किसी व्यक्ति को सब तरफ शुभ ही शुभ मिले, कुछ भी अभद्र न मिले? अपने-अपने जीवन के प्रत्यक्ष प्रमाण से हम कह सकते हैं कि नहीं, ऐसा तो नहीं होता पर वेद भगवान् हमें बताते हैं कि ऐसा ही होता है। कुछ लोग अपने भद्र को डायरेक्ट रूप से देते हैं तो कुछ इन्डायरेक्ट रूप से। कुछ ऐक्टिव वाइस में बोलते हैं तो कुछ पैसिव वाइस में। जब कोई व्यक्ति हमें कहता है कि तुम्हारी दृृष्टि ठीक नहीं है तो वह अप्रत्यक्ष रूप से हमें यही बताता है कि हमें वास्तव में अपनी दृष्टि को प्रेम, करुणा, दया व सन्तुष्टता से पूर्ण बनाना चाहिए। जब कोई व्यक्ति हमें कहता है कि आपकी वाणी अच्छी नहीं तो वास्तव में वह हमारी वाणी को सत्यता, मधुरता व हितकारिता से युक्त करना चाहता है। जब कोई कहता है कि आपका स्वभाव ठीक नहीं है तो वास्तव में वह हमारे स्वभाव को दिव्य व ऋषितुल्य देखना चाहता है। बस उसका कहने का तरीका अप्रत्यक्ष है। हमारे माता-पिता-गुरुजन भी हमें वैसा ही देखना चाहते हैं। बस अंतर इतना ही है कि वे हमें प्रेम पूर्वक बता देते हैं कि तुम्हें अपनी आदतें ठीक करनी चाहिए और कभी- कभी नाराज होकर भी बताते हैं परन्तु दूसरे कुछ लोग सदा नाराज होकर या शिकायत की भाषा में ही समझाते हैं। परन्तु हमारे पास यह स्वतंत्रता है कि हम सबके सन्देशों को भगवान् की कृपा समझकर अपने लिए सबको भद्र बना सकते हैं। हमारे बुद्धि रूपी पारस से कुछ लोहे के सन्देशों को भी सोना बनाया जा सकता है तो इस रूप में यह प्रार्थना सत्य सिद्ध हो जाती है। हमें सुबह उठकर प्रभु से प्रार्थना करनी चाहिए कि प्रभु आज बड़ों के प्रति श्रद्धा, भक्ति, विनम्रता व कृतज्ञता से युक्त रहूँगा। अपने प्रत्येक कर्म को सेवा और पूजा समझकर आज करेंगे। छोटे या बड़ों के प्रति, भगवान् या राष्ट्र के प्रति स्वयं अपने आपके प्रति मेरे क्या-क्या कत्र्तव्य हैं, उनको 100 प्रतिशत जागरूकतापूर्वक निभाऊँगा। दूसरों के मेरे ऊपर क्या-क्या अधिकार हैं, वो सहर्ष उन्हें प्रदान करूँगा। मेरे माता-पिता-गुरुजनों व पितरजनों को, वयोवृद्ध तथा ज्ञानवृद्ध लोगों को मुझे डाँटने का, धमकाने का व दण्ड देने का पूरा अधिकार है, आज के दिन मैं पूर्ण विनम्रता से उनको उनके अधिकार समर्पित करता हूँ। मेरे छोटे भाई-बहनों को, बच्चों को, मित्रों को मुझसे शारीरिक, मानसिक, वाचिक या आत्मिक सेवा लेने का पूर्ण अधिकार है। मैं आज यह अधिकार उन्हें सहर्ष समर्पित करता हूँ। मेरे राष्ट्र का, इस धरती का, इन अग्नि, जल, वायु, आकाश का मुझ पर अत्यन्त ऋण है। मैं अपने सभी कर्मों के माध्यम से इनकी सेवा करने का प्रयास करूँगा। मेरे परमपिता परमात्मा जो सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वशक्तिमान मेरे शाश्वत माता-पिता-बन्धु- सखा अनन्त ज्ञान, अनन्त प्रेम, अनन्त दिव्यता, अनन्त क्षमा, आनन्द ऐश्वर्य, पवित्रता, उत्साह, बल, क्षमा व करुणा के सागर हैं। सदा काल से सदा काल तक मेरे परम हितैषी व सर्वस्व हैं। आज प्रतिपल, प्रतिश्वास में उनका आज्ञाकारी बालक बनकर जीऊँगा। अनन्त-अनन्त कृतज्ञताओं से भरा रहूँगा, उनके प्रति। मेरे स्वामी! ऐसी कृपा करना कि आज आँख से, कान से, नाक से, वाणी से, हाथों से, पैरों से, पेट से, दिमाग से, हृदय से, शरीर के रोम-रोम से तथा एक वाक्य में कहूँ तो सम्पूर्ण स्थूल सूक्ष्म अस्तित्व के सम्पूर्ण कर्मों को आपकी पूजा में परिवर्तित कर सकूँ। ऐसा करने से मैं आज प्रतिपल आपकी पवित्र शरण में पूर्ण प्रशान्त व पूर्ण आनन्द से युक्त जीवन जी सकता हूँ।
3म् शान्ति! शान्ति!! शान्ति!!!

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