आयुर्वेद अमृत
आयुर्वेद में वर्णित अजीर्ण का स्वरूप, कारण व भेद-
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रसायन-वाजीकरणम्
यहाँ तक रोगों की चिकित्सा हेतु औषध योग बताए गये हैं। आयुर्वेद में दो प्रकार के औषध माने जाते हैं- 1. रोगहर तथा 2. स्वस्थ व्यक्ति के लिए ऊर्जस्कर (शक्ति व स्फूर्ति बढ़ाने वाले)। ऊर्जस्कर औषध के भी दो भेद माने गए हैं- रसायन एवं वाजीकरण। जरा (वृद्धावस्था) के प्रभाव को रोककर शरीर में शक्ति व स्फूर्ति देने वाले औषध रसायन कहलाते हैं तथा शुक्र की शुद्धि व पुष्टि कर प्रजनन-सामथ्र्य को बढ़ाने वाले औषध वाजीकरण कहलाते हैं। इस प्रकरण में इन दोनों का वर्णन किया जा रहा है-
धात्रीचूर्णस्य कंसं स्वरसपरिगतं क्षौद्रसर्पिः समांशं
कृष्णामानीसिताष्टप्रसृतसमयुतं स्थापितं धान्यराशौ।
वर्षान्ते तत्समश्नन् भवति विपलितो रूपवर्णप्रभावा-
न्निव्र्याधिर्बुद्धिमेधास्मृतिवचनबलस्थैर्यसत्त्वैरुपेतः ।76।
आंवले के रस से युक्त आंवले का चूर्ण एक अंस परिमाण में लें। इसके अतिरिक्त समान मात्रा में 64-64 पल घृत व मधु लें। कृष्णा (पिप्पली) का मानी परिणाम (आठ पल) लें। शर्करा के 16 पल लें। इन सबको आमलकी चूर्ण के साथ मिलाएं तथा पात्र में भरकर धान्यराशि में दबाकर रख दें। इसे वर्षाकाल अर्थात् चैमासे तक वही रखा रहने दें; तदनन्तर निकालकर सेवन करें। इसका सेवन करने से व्यक्ति पलित (केशों के श्वेतपन) से रहित होकर रूप, वर्ण एवं कान्ति से शोभित हो जाता है तथा रोगरहित होकर बुद्धि, मेधा, स्मृति, वचनशक्ति, बल, स्थैर्य (दृढ़ता) एवं सत्त्व (उत्साह) से सम्पन्न हो जाता है।
मधुकं मधुना घृतेन च प्रलिहन् क्षीरमनु प्रयोजयेत्।
लभतेऽपि च नात्मनः क्षयं प्रमदानां प्रियतां च गच्छति।77।
मधुक (मुलेठी) के चूर्ण का घृत व मधु के साथ लेहन का ऊपर से दुग्ध पान करें। इससे व्यक्ति शुक्रक्षय का अनुभव नहीं करता तथा नारियों का प्रिय बन जाता है।
यष्टीतुगासैन्धवपिप्पलीभिः, सशर्कराभिस्त्रिफला प्रयुक्ता।
आयुः प्रदा वृष्यतमातिमेध्या, भवेज्जराव्याधिविनाशिनी च।78।
यष्टी (मुलेठी), तुगा (वंशलोचन), सैन्धव लवण, पिप्पली एवं शर्करा के साथ त्रिफला का प्रयोग करना चाहिए। यहाँ त्रिफला के साथ पृथक्-पृथक् उक्त औषधद्रव्यों को मिलाने से पाँच योग बनते हैं। इन योगों के रूप में प्रयुक्त त्रिफला चूर्ण आयुप्रद, वृष्यतम तथा अति मेध्य (मेधा के लिए अति हितकर) होता है। यह वृद्धावस्था के प्रभाव एवं अन्य व्याधियों को भी नष्ट कर देता है।
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