अमेरिकी रिसर्च जर्नल में पतंजलि का शोध पत्र प्रकाशित

अमेरिकी रिसर्च जर्नल ने माना कि आयुर्वेद में किडनी रोगों का सफल उपचार सम्भव

अमेरिकी रिसर्च जर्नल में पतंजलि का शोध पत्र प्रकाशित

रीनोग्रिट किडनी रोगियों के लिए वरदान: पूज्य आचार्य श्री

हरिद्वार। आयुर्वेद में किडनी रोगों की सर्वोत्तम चिकित्सा संभव है। यह प्रमाणित किया है अमेरिका के विश्व प्रसिद्ध रिसर्च जर्नल PLOSONE ने अमेरिकी रिसर्च जर्नल ने पतंजलि के शोध में माना है कि एलोपैथिक दवाइयां विशेषकर एंटीबायोटिक वैंकोमाइसिन (टंदबवउलबपद) जैसी दवाइयों से किडनी खराब होती है और किडनी ठीक करने के लिए पतंजलि आयुर्वेद की दवाई रीनोग्रिट (त्मदवहतपज)प्रभावशाली व प्रमाणित है।
        इस अवसर पर पतंजलि योगपीठ के महामंत्री आचार्य बालकृष्ण जी ने कहा कि पतंजलि आयुर्वेद संस्थान के वैज्ञानिकों के गहन शोध का परिणाम है रीनोग्रिट’, जो किडनी रोगियों के लिए वरदान है। उन्होंने कहा कि रीनोग्रिट किडनी रोगों के बायोमार्कर और क्रिएटिनिनध्यूरिया क्लीयरेंस को विनियमित करके वैंकोमाइसिन से उत्पन्न नेफ्रोटाॅक्सिसिटी को कम करता है। इस शोध से यह सिद्ध हो गया कि एलोपैथिक दवाओं से किडनी खराब होती है जबकि आयुर्वेद में किडनी का दुष्परिणाम रहित सफल उपचार निहित है।
     उन्होंने कहा कि बड़ी-बड़ी ड्रग कम्पनियों ने आयुर्वेद के सामथ्र्य व शक्ति को कुचलने का प्रयास किया। यह प्रचारित किया गया कि गिलोय के सेवन से किडनी खराब होती है। इन कम्पनियों की निगाह आज भारत पर है कि भारत की विशाल जनसंख्या कब हार्ट, लिवर व किडनी आदि के रोगों से ग्रस्त हो और उनका आर्थिक साम्राज्य विस्तार ले। उनका साम्राज्य हमारे दुःख व रोगों पर ही खड़ा है। हमें ऐसे साम्राज्य को कुचलना होगा, और यह केवल आयुर्वेद से ही सम्भव है। आचार्य जी ने कहा कि पतंजलि आयुर्वेद में वह शक्ति है कि उनके इस कुचक्र को तोड़ सके।
      पतंजलि अनुसंधान संस्थान के प्रमुख वैज्ञानिक डाॅ. अनुराग वाष्र्णेय ने कहा कि वैंकोमाइसिन का प्रयोग मेथिसिलिन-प्रतिरोधी जीवाणु संक्रमण के विरूद्ध व्यापक रूप से किया जाता है। जबकि वैंकोमाइसिन संचय नेफ्रोटाॅक्सिसिटी का कारण बनता है जिससे किडनी का निस्पंदन तंत्र प्रभावित होता है। उन्होंने कहा कि रीनोग्रिट नेफ्रोटाॅक्सिसिटी को कम कर किडनी रोगों को ठीक करने में सक्षम है।
इस शोध से सम्बंधित अधिक जानकारी के लिए नीचे दिए गए लिंक पर जाएँ-
https://journals-plos-org/plosone/article\id¾10-1371/journal-pone-0293605

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